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कविता

मुश्किल है मुट्ठी भर सुख पाना

मनोज तिवारी


रात ढल रही है
आसमान में तारे भी ऊँघने लगे हैं
नींद के झोंके में
मशीन पर गिरते-गिरते
बचे हैं बच्चे
मशीन की आवाज में
उनकी नींद डूब गई है
सुपरवाइजर बाबू
पास ही पड़ी कुर्सी के हथ्थे पर
अपने पैर टिकाए
मशीन की गज्झिन सी आवाज से
अपने खर्राटे
एकाकार कर रहे हैं
बच्चों को यह
जयजयवंती के सुर से
लग रहे हैं
हवा थक कर
पत्तियों से लिपट गई है
नींद में ऊँघती
माएँ रो रहे शिशुओं को
करवट बदल कर
दूध पिलाने लगी हैं
वे सोच रही हैं
'अब टेम हो गया है
फैक्ट्रियों से छूटने का'
आधा चाँद कोठरियों में
झाँककर भारी कदमों से
गुफा में प्रवेश कर गया चुका है
बच्चे अब भी
नजरें गड़ाए मशीन पर
तार तार हो आए माँ की
साड़ियों के बारे में सोच रहे हैं
उन्हें लगता है
कितना मुश्किल है
मुट्ठी भर सुख पाना।


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